विश्व हिंदू परिषद के पूर्व वर्तमान अंतरराष्ट्रीय संरक्षक अशोक सिंहल जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में और देश, धर्म, समाज और संस्कृति की रक्षा के अपने जीवन के 65 वर्ष न्यौछावर कर दिए। अस्सी के दशक में विराट हिंदू समाज के कार्यक्रम के संचालक के रूप में पहली बार वह सार्वजनिक मंच पर आए। उन्होंने अपने जीवन में राम जन्मभूमि आंदोलन, धर्मांतरण, छुआछूत और गौरक्षा जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे पर आंदोलन का सफल संचालन किया और अपनी नेतृत्व क्षमता का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया। इसके अलावा उन्होंने इस मिथक को भी तोड़ा कि हिंदू कभी संगठित नहीं हो सकता। विशेष रूप से बीती सदी के 80 के दशक में एक साथ कई आंदोलनों की कमान संभालने वाले सिंहल जी ने राम मंदिर, धर्मांतरण, गोरक्षा और छुआछूत के खिलाफ सभी को एक मंच पर लाने का काम किया और इन सभी आंदोलनों को सफल बनाकर कुशल नेतृत्व की मिसाल कायम की।
छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक बने रज्जू भैया के जरिए अशोक जी वर्ष 1942 से ही इस राष्ट्रवादी संगठन से जुड़ गए थे। जिसके बाद 1950 अशोक जी ने संघ का प्रचारक बनकर देश, समाज और संस्कृति की सेवा का संकल्प लिया। हालांकि हिंदुत्व के लिए जीवन न्योछावर करने वाले इस महान पुरुष के जीवन के सभी पहलुओं से परिचित कराने के लिए अभी तक कोई पुस्तक सामने नहीं आई थी। 80 के दशक में देश में हिंदुत्व का जोश भरने वाले अशोक जी के बारे में पूरी दुनिया जानती है लेकिन इसके लिए उनके द्वारा किए गए त्याग और बलिदान के बारे में कोई नहीं जानता होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े समाजसेवी श्री महेश भागचन्दका ने हिंदुत्व, देश, समाज और संस्कृति के लिए लगातार संघर्ष करने वाले महान तपस्वी अशोक जी के जीवन से जुड़े सभी पहलुओं से लोगों को परिचित कराने के लिए उनके जीवन पर पुस्तक लिखने का निर्णय लिया। पुस्तक के लिए सामग्री जुटाने के लिए उन्होंने अशोक जी के साथ विहिप में बतौर उपाध्यक्ष और कोषाध्यक्ष रह कर काम किया और धर्म-संस्कृति की रक्षा में अहम योगदान देने वाले अपने चाचा सत्यनारायण भागचन्दका का मार्गदर्शन हासिल किया। पुस्तक में अशोक जी के जीवन से जुड़ा कोई पहलू छूट न जाए, इसके लिए उन्होंने संघ परिवार के वरिष्ठ लोगों जैसे माननीय भैय्या जी जोशी, बजरंगलाल गुप्त जी, रामलाल जी, दिनेश जी और चंपत राय जी से पूरा सहयोग लिया। इस कठिन परिश्रम के बाद भागचन्दका जी ने अशोक जी के जीवन से सभी पहलुओं से पाठकों का परिचय कराने के लिए 15 अध्याय वाली इस पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में अशोक जी के बचपन, छात्र जीवन से लेकर अब तक की यात्रा का जीवंत और प्रासंगिक वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में सैकड़ों की संख्या में ऐतिहासिक अवसरों के फोटो भी शामिल किए गए हैं, जो कि पुस्तक को पठनीय और दर्शनीय बनाते हैं। पुस्तक के लेखक का कहना है कि राष्ट्र समर्पित एक योद्धा की तरह धर्म, देश, समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना घर-परिवार और निजी स्वार्थ छोड़ कर तपस्वी जीवन व्यतीत करने वाले महान व्यक्तित्व को एक पुस्तक में समेटना उनके लिए मोक्ष हासिल करने जैसा है।
यह पुस्तक अशोक जी के जीवन से जुड़े कई मार्मिक प्रसंगों से भरी है। साथ ही इसमें उनके जीवन से जुड़े कई ऐसे पहलुओं के बारे में बताया गया है, जिनसे देश अभी तक अपरिचित है। खासतौर से अशोक जी से जुड़ी बचपन और युवावस्था की घटनाएं हृदय को झकझोर देने के लिए काफी है। पुस्तक में संगीत के शौकीन प्रशासनिक अधिकारी से जुड़े एक समृद्ध परिवार के एक मेधावी छात्र की कहानी को बखूबी दिखाया गया है, जिसने पहले तो इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और उसके बाद देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा की लड़ाई में खुद का जीवन झोंक देने का प्रण लिया। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही वर्ष 1949 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर गांधीजी की हत्या के बाद लगाए गए प्रतिबंध के बाद अशोक जी सत्याग्रह में कूद पड़े और जेल भी गए। इससे पहले वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शिरकत करने और इस दौरान मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण अशोक जी का देशसेवा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर झुकाव आदि सभी पहलुओं और घटनाओं की सचित्र जानकारी पुस्तक के माध्यम से दी गई है। पुस्तक की एक और खास बात यह है कि इसमें अशोक जी के परिवार के सदस्यों द्वारा दी गई जानकारियां भी है।
अशोक जी ने छात्र जीवन में ही खुद को देश, समाज, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया था। संकल्प के प्रति प्रतिबद्ध होने के कारण उन्होंने गंभीर रूप से अस्वस्थ पिता के इलाज के लिए उनके साथ अमेरिका जाने से भी इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि मैं राष्ट्र सेवा में व्यस्त हूं, इसलिए किसी और भाई को पिताजी के साथ भेज दो। इतना ही नहीं संकल्पबद्ध होने के कारण अशोक जी मृत्युशय्या पर लेटी अपनी माताजी से भी मिल सके थे। राष्ट्रसेवा में व्यस्त अशोक जी जब घर पहुंचे तो इसके आधे घंटे के बाद ही उनकी माताजी स्वर्ग सिधार गईं। उन्होंने एक प्रचारक के रूप में कानपुर में महज 5 फुट चौड़े और 8 फुट लंबे कमरे में बिना किसी शिकायत के कई वर्ष बिता दिए। एक बार कोट पैंट पहनने पर रज्जू भैया ने कहा कि सुनहरे लग रहे हो, इस स्नेहपूर्ण व्यंग्य के बाद दोबारा कभी उन्होंने कोट पैंट नहीं पहना।
अशोक जी ने देश और धर्म की रक्षा से जुड़ी प्रतिबद्धता में कोई कसर बाकी नहीं रखी। हालांकि एक घटना से उनकी यह प्रतिबद्धता और भी ज्यादा मजबूत हो गई। वर्ष 1962 में कानपुर मे बैरिस्टर नरेंद्र जीत सिंह के निवास पर गुरूदक्षिणा कार्यक्रम के दौरान उन्हें हृदयाघात हुआ था। जिसके बाद उनके मन में विचार आया कि दुनिया में क्या ले कर आए थे और क्या ले कर जा रहे हैं। इस घटना के बाद उन्होंने निःस्वार्थ सेवा का संकल्प लिया।
बीती सदी के 80 के दशक में अशोक जी के कारण ही राम मंदिर जन्मभूमि आंदोलन को नई धार मिली। उन्होंने अपनी अदभुत नेतृत्व क्षमता से इस आंदोलन के लिए संतों को एकजुट किया। इसके बाद आंदोलन के लिए हिंदुओं को संगठित कर उन्होंने सरकार की चूलें हिला दीं। हालांकि परिणामों को ले कर मन में चिंता बनी रही। उसी दौरान महान संत देवराहा बाबा ने भी उन्हें आगाह किया था और यह कहा था कि राम मंदिर के शिलान्यास के जरिए जनता में मंदिर निर्माण के प्रति विश्वास पैदा होगा और अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश का आपके प्रति विश्वास तो टूटेगा ही लेकिन साथ ही देश भी एक बार फिर से टूट जाएगा। हालांकि अशोक जी ने ऐसा नहीं होने दिया और शिलान्यास के साथ-साथ राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया और जनता का खुद पर किया गया भरोसा कायम रखा।
80 के दशक के उन्होंने आंदोलन को और तेज किया। अपनी अद्भुत नेतृत्व क्षमता के साथ उन्होंने भारत के सभी संतों को एकजुट किया। हालांकि इस आंदोलन के परिणामों को लेकर वह आशंकित थे लेकिन महान संत देवराह बाबा ने "राम मंदिर नींव" की जटिलताओं और भक्तों के टूटे हुए विश्वास के परिणामों को लेकर उन्हें आश्वस्त किया था। हालांकि श्री अशोक सिंहल जी "राम मंदिर" के निर्माण की दृढ़ इच्छा शक्ति के अलावा खुद पर भी दृढ विश्वास से लबरेज थे।
अशोक जी हमेशा से शुद्धता के पक्ष में रहे थे। वह धार्मिक मामलों के प्रति बहुत अनुशासित थे। एक बार संघ के सभी सदस्यों ने एक "चतुर्वेद" विस्मरण (यज्ञ) का पालन करने का निर्णय लिया था। इस यज्ञ की योजना के अनुसार, उन्होंने अपने इस दायित्व को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए दक्षिण भारत से "ब्राह्मणों" को आमंत्रित किया। अशोक जी ने इसके लिए लगभग 250 किलोग्राम शुद्ध देशी घी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी ली थी। क्योंकि वह इसमें पवित्रता बनाए रखने को लेकर बहुत उत्सुक थे। इसलिए वे कानपुर से उदयपपुर तक सभी डिब्बे स्वयं ही लाए। उन्होंने इस दौरान किसी अन्य को उन घी के डिब्बों को छूने नहीं दिया।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से माइंस इंजीनियरिंग करने के बाद सिंहल जी ने जब अपने पिता को अपने फैसले के बारे में बताया कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में पूर्णकालिक सेवा देना चाहते हैं, तो यह बात सुनकर उनके पिता आवाक रह गए। नाराज पिता महावीर सिंह ने पहले तो सिंहल को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा। उन्होंने कहा था कि बिना प्रचारक बने भी तो देश सेवा की जा सकती है। यही नहीं पिता ने अशोक जी को ना केवल डराया-धमकाया, बल्कि घर से बाहर निकालने तक की धमकी दी थी लेकिन इसके बावजूद जब पिता सिंहल अशोक जी को उनके दृढ़ निश्चय से नहीं हिला पाए तो उन्होंने न केवल अशोक जी को अपना आशीर्वाद दिया, बल्कि यह भी नसीहत दी कि जब प्रचारक बनना तय कर ही लिया है तो इसे पूरे मन, आत्मा और विवेक से पूरा करना।
अशोक सिंहल जी के बडे़ भाई विनोद सिंहल जी महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद जी के समर्थक थे और उनके साथ स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े थे। उन्होंने आजाद के साथ काफी समय तक क्रांति में योगदान दिया था। हालांकि आजाद के शहीद होने के बाद विनोद जी भारतीय पुलिस सेवा में आ गए और त्रिपुरा में प्रशासनिक अधिकारी भी रहे। विनोद जी ने 37 वर्ष की अवस्था में शादी की।
महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के दौरान सत्याग्रह करने पर अशोक जी को जेल में डाल दिया गया था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चंद्रभानु गुप्त ने उन्हें जेल से छुड़ाया और देश के आजाद होने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन के औचित्य पर सवाल उठाए। जिस पर अशोक जी ने उनसे पूछा कि यही स्थिति रही तो देश पर राज कौन करेगा। इस पर गुप्त ने उत्तर दिया कि कम्युनिस्ट राज करेंगे। तो फिर से अशोक जी ने बिना समय गंवाए उनसे कहा कि वह ऐसा होने नहीं देंगे। अशोक जी का कहना था कि कम्युनिस्टों में देश चलाने की क्षमता ही नहीं है।
जब बीमार पिता का इलाज कराने के लिए अशोक जी ने उनके साथ अमेरिका जाने से इंकार कर दिया था। तब अशोक जी का कहना था कि वह राष्ट्रीय आंदोलनों में व्यस्त हैं। अशोक जी की यह बात सुन कर माताजी बहुत दुखी हुईं लेकिन थोड़ी ही देर बाद अंगुठा काट कर अशोक जी को रक्त तिलक लगाया और कहा जा राष्ट्रसेवा में जुट जाओ।
अशोक जी शुरू से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाहक बनने वाले रज्जू भैया के बेहद करीबी थे। रज्जू भैया अक्सर ही अशोक जी के घर महावीर भवन आते रहते थे। रज्जू भैया से संपर्क बढ़ने के कारण अशोक जी की राष्ट्रवाद में दिलचस्पी बढ़ी। इसके अलावा अशोक जी सर संघचालक रहे माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर गुरूजी के भी काफी करीबी रहे। हिंदू समाज को आगे बढ़ाने के लिए अशोक जी को गुरूजी भविष्य के नेता के रूप में देखते थे।
जब अशोक जी कानपुर में बतौर प्रचारक मौजूद थे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि एक मालगाड़ी में बड़ी संख्या में गौ माताओं को भरकर ले जाया जा रहा है। सूचना मिलने पर अशोक जी विचलित हुए और गौमाताओं को स्वतंत्र करने की योजना बनाई। इसके लिए उन्होंने आनन-फानन में कई कार्यकर्ताओं को इकट्ठा किया और कानपुर स्टेशन पहुंच गए। स्टेशन पर यार्ड में खड़ी मालगाड़ी के पास पहुंचते ही उन्होंने कार्यकर्ताओं के साथ मालगाड़ी पर धावा बोल दिया। जब तक कोई कुछ समझ पाता, तब तक मालगाड़ी के डिब्बों में लगे तालों को तोड़ कर उन्होंने गौमाताओं को आजाद करा लिया था। ताला तोड़ने वालों में खुद अशोक जी भी शामिल थे।
वर्ष 1990 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिम तुष्किरण की राजनीति के तहत बेहद घमंड से कहा था कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। मुलायम सिंह यादव की यह धमकी अशोक जी को बेहद नागवार गुजरी। उन्होंने कारसेवा को सफल बनाने और हर हाल में राम जन्मभूमि तक ले जाने के लिए अपनी सारी ताकत और संगठन क्षमता झोंक दी। उसी दौरान जब 2 नवंबर 1990 को अयोध्या में अचानक हजारों रामभक्तों की भीड़ उमड़ी, तो प्रशासन दंग रह गया। इस बात से नाराज मुलायम ने कारसेवकों पर गोलियां चलवाईं। हालांकि अशोक जी ने मुलायम के परिंदा के भी पर न मार सकने वाले बयान को गलत साबित कर दिखाया और अयोध्या में तमाम सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद हजारों कारसेवकों को उतार कर करारा जवाब दिया।
अशोक जी राममंदिर जन्मभूमि आंदोलन को धार देने में जुटे थे और अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का लक्ष्य हासिल करने के लिए उन्होंने संतों को एकजुट करने के साथ ही हिंदुओं को भी इससे जोड़ दिया था। उन्होंने संतों को जोड़ने के लिए 8 अप्रैल 1984 में विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन करवाया। धर्म संसद में राम जानकी रथ यात्रा पर सबकी सहमति बनी। सबकी कोशिश थी कि इस देशव्यापी यात्रा के जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को राम मंदिर निर्माण पर हामी भरने के लिए मजबूर किया जाए लेकिन यह यात्रा जैसे ही दिल्ली पहुंची इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी।
अशोक जी को संगीत की गहरी समझ थी। वह शास्त्रीय संगीत के नामी गायकों के गाने सुनते और उन्हें गुनगुनाते रहते थे। उन्हें वाद्य यंत्रों का भी अच्छा ज्ञान था। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि अशोक जी ने संघ के कई गानों को अपनी आवाज दी है।
अशोक सिंहल जी की माता को उस समय एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर सहज विश्वास नहीं हुआ था। दरअसल ज्योतिषी ने कहा था कि चाहे कुछ भी कर लो लेकिन यह लड़का संन्यासी बनेगा और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेगा। हालांकि अशोक जी के पिताजी बड़े सरकारी अधिकारी थे और एक भाई भी आईपीएस अधिकारी था। इसके अलावा घर में एक सैन्य प्रशासक तो दो बड़े उद्योगपति थे। इस कारण से उन्हें उस ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर जरा सा भी विश्वास नहीं हुआ लेकिन यह भविष्यवाणी सच साबित हुई।
बचपन के दिनों में, अशोक जी के एक भाई ने एक मेंढक को मौत के घाट उतार दिया था। यह देखकर, उनके पिता बहुत क्रोधित हो गए और उन्हें उस काम के लिए जिम्मेदार ठहराया। लड़के ने मासूमियत से कहा कि उसने मेंढक को नहीं मारा क्योंकि यह उसकी किस्मत थी और वह केवल माध्यम था। उत्तेजित होकर पिता ने यह कहते हुए लड़के की पिटाई शुरू कर दी कि यह लड़के की किस्मत है और पिता इसका माध्यम था। इस तरह, अशोक जी को पता चला कि कुतर्क करना हर समय उचित नहीं है।
विहिप के अंतरराष्ट्रीय संरक्षक सिंहल जी अपने जीवन में दो बार जेल भी गए। जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा, तो इसके विरोध में सत्याग्रह के दौरान वर्ष 1949 में वह पहली बार जेल गए। इसके बाद दूसरी बार आपातकाल के विरोध में 1975 में वह दूसरी बार जेल गए। सत्याग्रह के दौरान काशी जेल में बंद सिंहल जी को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चंद्रभानु गुप्त ने छुड़ाया था। जेल से छुड़ाने के बाद गुप्त ने उन्हें लखनऊ बुलाकर बातचीत भी की। इस दौरान चंद्रभानु गुप्त ने सिंहल जी से कहा कि जब देश आजाद हो गया है, तब ऐसे संगठन की जरूरत ही क्या है। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे सिंहल जी को पढ़ाई पर ध्यान देने की सलाह दी और ऐसे कार्यों से दूर रहने के लिए कहा था। जिस पर सिंहल जी ने गुप्त से पूछा कि वह सीने पर हाथ रख कर बताएं कि इस देश पर राज कौन करेगा। सिंहल जी का यह सवाल सुन गुप्त अवाक रह गए और यह माना कि सत्ता कम्युनिस्टों के हाथों में जाएगी। तब सिंहल जी ने तत्काल कहा कि इनमें देश चलाने की क्षमता नहीं है और मैंने इनसे देश को मुक्त कराने और इनके खिलाफ लड़ने का प्रण लिया है। इसके अलावा अशोक जी इस बात से भी काफी नाराज थे कि सत्याग्रह के दौरान गांधी की हत्या में संघ का हाथ नहीं था, फिर भी सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया गया था।